४२० संतकब्य उद्गार (३) ऐन हो. नाप है बिना नुकते, सदा चैम महबूब दिलबार मेरा इफ्फबार महबूबने जिनो डि, पोह देख हार हैसम्भ केरा। उसतों लव वहिस्त कुरवाण कोते, पहुंचे महल बेगम चुकाइ ऑड़ा । बुल्लेशाह उस हाल मस्तान फिरहे, हाथी मत्तड तोड़ जंजीर खेड़ा३। महबूब=प्रियतम 1 =को । जिनी-=जिसने । सभ ==उंस परमात्मा का ही । उसतों =उस पर डा =नंझट, बखेड़ा। जेडा = अधीनता, बंधन। संत गुलाल साहब गुलाल साहब जाति के क्षत्रिय थे और तालूका व सहरि, परगना सादियावाद, तहसील व जिला गाजीपुर के रहने वाले थे । ये जमीदार ये और इन्हीके यहां बुला साहब पहले बुलाकी राम कुर्मी के रूपमें हलवाही का काम करते थे । इनके बुलाकी राम के प्रति किये गए व्यवहार की चर्चा चूला साहब के परिचय में की गई है। बल साहब के ठाकुर और मालिक होते हुए भी, जब ये उनसे प्रभावित होकर उनके चरणों में गिर पड़े तो उन्होंने इन्हें अपने शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया । तब से मैं उन्हींके सत्संग में सदा रहने लगे और उनका देहांत हो जाने पर उनकी गद्दी के उत्तराधिकारी भी हुए। इनके हृदय की उदारता एवं भावुकता का पता केवल इसी एक बात से चल सकता है कि इन्होंने अपने नीच टलुवे के भी आध्यात्मिक व्यक्तित्व के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और अपने पूर्व संस्कारों को तिलां जलि देकर ये सदा के लिए उसके सच्चे अनुयायी बन गए । वास्तव में हमें इनकी रचनाओं के अंतर्गतभक्ति तथा प्रेम की भावना इनके गुरु अथवा दादागुरु से भी अधिक मिलती है । भुरकुड़ा की गद्दी पर ये अपने अंत समय तक रहे और सं० १८१६ में इनका देहावसान
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