सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सथ्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४२१ हो गया । इनके जीवन की अन्य किसी घटना का पता नहीं चलता । और न इनकी शिक्षा आदि के संबंध में ही कोई विवरण उपलब्ध है । इनकी रचनाओं का एक संग्रह ‘गुलाल साहब की बामी' के नाम से वेलवेटेडियर प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित हुआ है और इनके बहुत से अन्य पद भी भुरकुड़ा से छपी हुई पुस्तक ‘महात्माओं की बाणी’ के अंतर्गत दिये हुए हैं । इनके दो ग्रंथ ज्ञान गुष्टि' तथा 'राम सहसनाम' के नाम से सुने जाते हैं किंतु उनका प्रकाशन अभी तक नही हो पाया है : इन्हीं दो नामों से इ नकी दो रचनाएं महात्माओं की बानी में भी दीख पड़ती हैं , संभव है, ये वे ही हों । गुलाल साहब की भाषा में भोजपुरी शब्दों एवं मुहावरों की प्रचुरता पायी जाती है । इनकी पंक्तियों में इनकी प्रेम विह्वलता, इनका हृदयोलास तथा इनकी श्रद्धामयी भक्ति का प्राय: सर्वत्र परिचय मिलता है और ये एक उच्च श्रेणी के साधक भी जान पड़ते हैं । इनकी वनशैली में तन्मयता के साथसाथ स्वानुभूति की भी झलक मिलती है और उसमें प्रवाह की मात्रा भी कम नहीं । पद उदगार (१) राम मोर जिया राम भोर धना, निस बासर लागल रहे सना टेका। आठ पहर तरह सुरति निहारी , जस बालक पाले महतारी ११। धन सुत लछभी रह्यो लोभाय, गर्व सू ल सब चल्यो सँवाय ।२! बहुत जतन भेष रचो बनाय, जिन हरिभजन इंदोरस पडेय ।३। हिंस तुरुक सब रायल बहाय, चौरासी में रह लिपटाय ट४है।