पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४३५

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४२२ कहै गुलाल सतगुरु बलिहारी जाति पांति अब छुटल हरी ५५। पुंजिया=:जो । गवंटल = घमंड का आधार स्वरूप । इंदोरन ८ एक फल जो सुंदर लालरंग का होने पर भी कई वा होता है, इंद्रासन (दे. -ब हैरि भजन इंद्रासनि के फल तजत नहीं करुआई. तुलसीदास) । (२) अन तुम कपट दुर अड़क । भटक को तुम पंथ छोड़ो, सुरत सब्द समाव टा। करत चाल कुचाल चालत, मकर मेल सुभव । तीन तिंरगुन सपत दिनकरसइ बुझतलब 1 १। अति अधीन सलोन माथा, सोह में चितलाव । अगम घर को खबरि नाहों, सूढ़ तसच पांव है२है। सुश्म सिखर सरोज फ्लो, बंक नालहि जाब। कह गुलाल अतीत पूरन, आंधु में दर पटाव १३।। अड़ाब=रोकरख । झलाव-बुझा , शांत कर दे । तासच == उस सत्य को । साधना (३) रसना राम नाम लव लाई । अंतरगते में म जो उपजे, सहज परमपद पाई ।टक।। सत गरु बचम समीर थोर रि, भावसो बंद लगाई । ऊ हंस गगन चढ़ि धाव, फाटि जाय भ्रम काई ।१। जोग यज्ञ तप दान ने न जत, यह सोहो नहीं भाई ॥ संतनको चरनोदक लैलेगिरा जूठ मैं पाई १२ा। कहा कहाँ कल कहल न लाएंनाहक जग बौराई । कहै गुलाल नाम नहिं जामत, खुश है हमरो ब लाई ।1३।