पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४३६

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मध्ययुग (उत्तर ढं ) ४२३ सृ ति है ... बलाई=मेरी बला से खोजेंगे वा बुरा मानेंगे। (४) जो कोइ प्रेम यह होई । त्याग करे जो मन कि कामरा, सीख दान दे ई टेक।। और असल को बर जो छोड़, आाणु अपम गति जोई। हरदम हाजिर प्रेम पियाला, पुलिक पुलिक रसलेई 1१ १l .. जोव पीव महें पीव जोब महं, बानी बोलत सोई । सोई सभम महें हम सबहन महेंबूझत विरला कोई ॥२ । बाकी गतो कहा कोइ जानेजो जिय सांचा होई ।. कह गुलाल व राम समाने, मत भूले नर लोई ३५ बर=द्वार, संबंध । इन निय (५) प्रभुजी बरषद प्रेम निहारो । उठत बैठत छिन न बोतल, याहो रीत तुम्हारो टेक।। समय होय भा असमय होने, भरत न लागत वारो । जैसे प्रति किसान खेत सों, हंसो है आम यासे 1१॥ भक्त बल है बान तिहाईगुन औगुन न निहाये । जहें अहें जांव नाम गुन गबतजम को सोच निबारो १२५। सोबत जागत सरन घरम यह, पुलकित मनह विचारो। वह गुलाल तुम ऐसो साहब, देखत मेरे ख्या 1३।। भाe=प्रथबा में बारो== बार, बिलंब' बाम =बाना, स्वभाव । उदश (६) हे मन धोबहु तनको मैली । यह संसार नाह सूझत घटखोजत निशु दिन गली ।।टेक!।