सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४२६ संतकाव्य और भयो उद हरि नाम तब ही जगो, लोक अ बेड सों जति पाया । रहत निरकंद आनंद लर उठत, गेम अरु प्रति ों व लगाया रहत अडोल कलोल दिन रैन में, पुर भयो मेंस तब थोर पाया । कहै गुलाल जंजाल तब ही गयो, राम रो जोव अथत काया ।२१। बरा =प्रकाशित । छाया=निवास कर लिया । गूबर घागा नासक्रा, सूई धन चाय । मन मानिक समिगन लक्ष्यों, पहिर लल बनाय 1१। बि, जल फैला विगसे, बिना नंबर गूजर । नाभि कंवल जोतो बरैतिरबन्नी उजियार !।२। जिन पाबल तिन गवलअ बर सकल श्रम डर। कहै गुलाल सनोरवा, पूरल अप्ठ हार 1३।। अनुभ फाम मनोरवा, छह दिवस परल घमांर । कापोर नगर में रंग रचो, प्राननाथ बलिहार १४। मानिक भवन उदित तहांभांवर दे वे गाय । जन गुलाल हरक्षित भयो, कौतुक कहो न जाय ।५?। राम नाम को मसि करो, यूथ के कागज बनाय । चित्त की कलम लिये लि ने, जन लाल म न लय ६। मनोरवा नामक एक । धमार = =मनोरा युग का रग एक राग का नाम है मानिक . . .तहां=धठ में साणिक्य जैसा प्रकाश फेल है ।