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भूमिका

व्याख्या के रूप में भी मिलती है, किंतु ये भी सांप्रदायिक ढंग की ही हैं। पंथीय साहित्य का एक बहुत बड़ा अंश उन स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं से भी भरा है जिन्हें ऐसे लेखकों ने अपने-अपने संप्रदायों के प्रमुख प्रवर्तकों को राम कृष्णादि अवतारों से भी बढ़कर दिखलाने की चेष्टा में लिख डाली हैं। उस वाङ्मय के अंतर्गत ऐसे ग्रंथों का भी बाहुल्य है जिनमें सांप्रदायिक दीक्षा अथवा पूजनादि का विधान बड़े विस्तार के साथ किया गया है।

पहले के संतों ने अपनी रचनाएँ किसी व्यवस्थित रूप में नहीं की थी। उन्होंने अपने भावों को केवल प्रकट मात्र कर दिया था। वे जो कुछ अनुभव करते थे उसे विविध पत्रों द्वारा व्यक्त कर देते और उनकी ऐसी पंक्तियों को लोग बहुधा लिख भी लिया करते थे। पीछे आने वाले संतों में अपनी ऐसी रचनाओं को स्वयं भी लिपिबद्ध करने की प्रवृत्ति दीख पड़ी। वे अपनी फुटकर पंक्तियों के संग्रहों के अतिरिक्त कभी कभी ऐसे ग्रंथ भी लिखने लगे जिनमें सिद्धांतों का निरूपण रहा करता था। संत सुन्दर दास ने इस प्रकार का एक ग्रंथ 'ज्ञान समुद्र' नाम से लिखा था और चरणदास जैसे कुछ संतों ने इस कार्य को संस्कृत भाषा में लिखी गई उपनिषदों तथा उपाख्यानों के हिंदी अनुवादों द्वारा भी पूरा किया था। गुरु गोविंद सिंह ने कुछ प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद दूसरों से भी कराये थे और उनके आधार पर अपने विचारों का स्पष्टीकरण किया था। कुछ संतों की प्रवृत्ति सूफ़ियों के ढंग पर लिखी जाने वाली प्रेमगाथाओं के निर्माण की ओर भी थी। बाबा धरणीदास ने अपने 'प्रेम प्रगास' ग्रंथ तथा उनके समकालीन संत दुखहरण ने अपनी 'पुहुपावती' की रचना उसीके अनुसार की थी। पंथों के अनुयायियों ने आगे चलकर कुछ ऐसी पुस्तकें भी लिख डालीं जिन्हें हम छोटे-मोटे आधुनिक पुराणों की संज्ञा दे सकते हैं।