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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४१

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४२द्र संत-काव्य चलता है कि इन्होंने परमात्मा को अधिकतर सत्त' बा सत्थ का नाम दिया है और उसोको एक अलौकिक व्यक्तित्व प्रदान कर उसके प्रति अपनी प्रगाढ़ भक्ति का भी प्रदर्शन किया है । ये उसके ऊपर अपने को पूर्णतः निर्भर मानते हैं और उसीकी कृपा वा अंत प्रेरणा द्वारा अपनी सारी क्रियाओं का संपन्न होना समझते हैं । इनकी विनयइनका आत्मनिवेदनइनकी श्रद्धा एवं दैन्य भाव सभी सगुणो पास भक्तों की शैली में ही प्रकट किये गए हैं। इनकी भाषा में अवधी बोली के शब्दों एवं सुहावरों की भरमार है और आलंकारिक भाष। के प्रयोग इन्होंने बहुत ही कम किये हैं । भगवत्रणा (१) प्रभुजी का बसि अहं हमारी । जब चाहत तब भजन केशवतचाहत देत बिसारी ।क१।। चाहत पल चिन छूटत नहीबहुत होत हितकारी। चहत डोरि सूचि पल डारत, डारि देत संसारी (२। कहें लषि बिनय चुनाव हुमते, मैं तो अहाँ अनारी। जगजिबन दास पास रहे चरमनकबहूं करहूं न न्यारी 1३ है। चाहत . . . आरत-यदि चाहते हो तो मुझे अपने बंधनों में रखने वाली रस्सी को सुखा कर शीघ्र निबंल कर डालते हो । उसका अन्त्यमित्व (२) प्रभुजी तुम जानत गति मेरी । तुमसे छिपा नहीं मुहै , कहा कह में देरी १r जहें जहें गढ़ परस्यो संतन कां, तह तहें कोन्हो फरी । गाढ़ मिठाथ तुरंतहि डारथो, दीन्हो सुक्ख घनेरी ।।२ा। जुग जुरा होत ऐत चलि अबासो अब सांझे सबेरी । दियो जनाथ सोई तस जाने, बास संह तेहि केरी 1३।