पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४४

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध ) ४३१ उसके अनुसार उनकी बुद्धि भी ठीक नहीं रहती । र में भरहाय =उबल पड़ते है ।"समोई =मग्न, पड़े हुए । सत्ताम का जर्ष (७) साधो सत्तनाम ज प्यार tटक। । सलनाथ अंतर नि लागी, बास किहे संसारा। ऐसे गुप्त बुष्य सुमिर , विरल लखे निहारा 1१। तजह , कुसंगति सबक, कटिन यह धारा। बबाव आह संत नाम के इड़ा बांधढ़उत्तरन का भवपा।२ ॥ जन्म पदारथ । पाइ जकल महें, अपुन मरह संभारा। जशःीघन यह सह नाम है, पर केतिक तारा ।।३। जक्त - गत, संसार । अपुन . . . संभारा अपने को स्मरण में खो दी है। आतय (८) तुम्ही गप्ति कछु जानि न पायो । इ जस बूझा तेइ तस सूवाहमें सद् गुन गायो ।।१। कर्ण हैठाई कहाँ बिनय करि, मोहि जस राभ बत्तायो । ऊस में गहरा लहा ले लागी, चरम सरन तब पायो ।२। भटकत रहेंड अनेक जनम लल हूि, वह सुधि सो विसरायो। दाथा कीन्ह दास करि जानेgबड़े भाग में प्रायो ।३। दियो बताइ दिखाइ अपुgकहेंवरना सीख नवायो। जगजीवन कहें आापन जानेई, अघ कर्म भर्म मिटायो १४१३ कठिन साधना (६) साधो केहि विधि ध्यान लगावें । जो मन चहे कि रहाँ छिपाना, छिपा रहे नहि पावं ११। प्रगट भये दुनिया सब धाबत, सांचा भाव न आये। करि चतुराई बढ विधि मनहूँ, उलटे कहि ससुझाव ।।२।’