पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४५

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४३२ संत -केाज्य भेष जगत इटौतें देखत, और रचिके गाये। चाहत नहीं रहत नह नामईतुस्ना बहुत बहाव १३ । गहि मत मंत्र रहे अंतर महें, तही कहि गहराईं। जगजोधन सतगुरु की , चरनन सीस नबाव ।।४। सवा स्मरण (१०) साधो रसनि रवि मन सोई। लागत लागत लागि गई , अंत में पारी कोई भ१। कहत रकार नकारहि साले, सिलि रहे ताहि समई। मधुर मधुर ऊंचे को धयोतहां अबर रस होई ।।२। खुइ के एक रूय करि , जोति झलमली होई। हिका नाम भयो सतगुरु का, लोहो नीर निकोई ।३।। १ांडू मंत्र गुरु सुखी भये तबअमर भये हांह बोई। जगजीवन दुई करतें चरन गहि, सीत नाइ रहे सोई 1४। रसनि ==स्बाद, चाट । मन को उपदेश (११) मन तुम का ऑ रहू समुझावड़े। अरह समुहु अपुहि बूझ, माधुह धर मां गावह I१॥ वे जाएं निचे का अवड, फिर ऊंचे कद धाबढ़। जबनि रसनि लागी तुनहीं की, तौनिहु रसनि मिटावडू ।२५। देख8 मस्त रह्यह मनुआांचरनन सीस मवाधडू । ऐसी जुगति रहूढ़ लाने, कबहूं न यहि जम आबहू ।३। जुग जुग कबहू अंग नह छूट, और सब बिसराबढ़ । जगजीवन परकास बिदित कृद्धि, सबानन्द सुख पाबहु ।।४। जर्ष का स्वरूप (१२) एं सो डोरि लगाबहु पढ़ि। टूटे डोरि लेह फिरि जोरि 1१। जब लग रातें कहिये बात तब लग नाम बिसरि सन जात १२)