पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४६

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संध्ययुग (उतरवें ) ४३ जग प्रयंव संगति नह करिये । हिये नासफी रटन धरिये ।।३। चिंतमां चित जो राखें लाय। तापर कालकि कछ न बसश्य है।४। जगजीघम के रन आधार। सतगुरु संत उतारींह पर ५५है। पढि =मजबूत । समस्या (१३) साधो को हैं कहूँले अवा । खात पिघत क्रो डलत बोलतअंत न काह पावा।१। पानी पवन संग इक सेलर, हे विवेक कहें गावा। कहि सन को कहां बसत है , यह नाच नचावा है।२।। एय महें धूल धूत महें ज्यों वासा, थारा एक सिलाबा। त मन वास पास मनि हिमां, करि सो जुक्ति बिलगावा 1३। पावक सर्वे अंग काढह मह, मिलि करखि जगावा। केंगे खाक तेज ताहों में, फिर धधे कहां समावा 1४। भान समान रुप सब छाया, दूदू6ष्ट सबहि अt लावा। परि घम कर्म आनि अंतर महें, जोति खैचि ले आधा ।।५!। अस है भेद अपार अंत नहसतगुरु अनि बताया। जगजोबन जस िसू ि’, तहि तस भाखि जनावा ५६। करवि चौंककरउजित कर। घर--बायलरूपी। यही सब कुछ (१४) सांई काहु के बस नह होई। जाहि जनवं सोई जानै, हमें सुमिरन होई।1१। आाह सिखत सिखाबत अपुहि, अपुहि जानत सोई। जापुgह बरत बिदित करावतअाह रत खोई १२। आपुह मूरुष आपुहि शानी, सब सह रहो समोई । अपुtिह जोति अहै निबनीआयु करावत वोई।३।। संत सिखाइ के ध्यान बतायो, न्यारा कबहूं न होई।