पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४७

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४३४ संत-क्राज्य जगजीवन बिस्वास बास करि, निवं त निर्मल सोई ।।४tहै (१४) बरत =वृत्तांत नि खेत =निरखता है । विचित्र संसार (१५) ए सद्धि अंव में काह कसें। भूलि परिर्ड में प्राइक , केहि बिधि धीर धौं 1१!है अंत नहीं यहि नगर दावो, तो विचार करें। चहत वो अहाँ मिलों में पियकहूंभ्रम की शैल पर २है। हित मोर पांच होत अनहितईबहुत लव कै । केलो प्रबोधि के के बोध करों में, ई कह धाँ बसें ।३है। तीस पचोख सहेली मिलि संग ई है कैसे बढ़े। पांप पकरि के विनती करों में ले बलु गगन फ्री है। निरत सिरसि छवि मोहि कहो अब, गहि रहें नांहि टर्जी। जगजीबत सत देरल कौं सखि, काहे भटक फि।५। वियोग (१६ ) यहि नगरी म्हें परिटें भुलाई। का तकसीर भई धाँ मोहि, डारे मोर पिंथ सुधि बिसराई । अब तो चत मेयो मोहि सजनो, ढूंढत सिंह में गइर्ड हिंरराई। भस्म लाय में भइयूँ जोगिनियां, अब उन बिनु मोहि कंछ न सुहाई ।२है पांच पचीस की कानि मोहि है, तातें रहने से ल।ज लजाई । सूरति सयांनप अहै इए मतसब इक बसिकरि मिलि रहु जाई । निरति रूप निरति के अाबलहम तुम तहां रहि ठहराई। जगजीवन सखि गगन मंदिर महंसतकी सेज सूति सुख पाई ।।४। तकसोर =, अपराध से पांच =पंचतत्व में पंचोल पच्चीस प्रकृतियां । कानि =मर्यादा का ख्याल में