पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४८

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मध्य ण । {उसराहें ४३५ एकाग्रता (१७) गगरिया मोरी चितसों उतरि' न जाय ।।।। इस कर करवा एक कर उबह, बतिया कहाँ अरथाय। सास ननद घर दारुन माहें, तासों जियरा डेराय 1१। जो चिस छठे गागरि फूटे, घर सोरि सांईल रिसाय । जगजीवन अस भती मार, कहल अहीं गोहाय ५२। (१७) करव=डोल । उबहनि =डोरी। अरथाय बाते शढ़ गढ़ के, 6यूरो व्याख्या करता हुआ । आत्मनिवेदन (१८) सांई मोहि सब कहृत अनारी। हम कई कहत अजान हैं ये, चतुर सब संसारो है।१ अहै अभेद भेब नह जानतसिखि पढ़ि कहत पुफारी। ख करत सटे नश्चत नहीं, डारिन भजन गिरी ।२५ कहा कहीं मन समु िरहत हो, देख्याँ दृष्टि पसारी । ससुझायें कड मानत नांहो, कपट बहुत अधिकारी हैंहै। विरले कोइ जन करत बंदगी, मैं है डारत मारी। जगजीवन गुरु चरन सीस दे, निरखत रूप निझाझे 1४। (१८) प्रत्ना =खें । अधिकारी =अधिक से निहारी = ध्यानपूर्व साखी सतनाम जपि जोयराऔर ब्था हिर जान । माया तक नहिं भूलेंसोसमुक्ति पछिला शाम ५१। काया नगर सोहावला, सुख तबहों पे होय। रमत रहै तेहि भोतरेदुख नहिं वाप कोय ।५२।। जिम केg सुरति संभारिया, अज१ा जपि में संत । स्पारे भवजल सयह में, सत्ल सुकृति . संत A३।