फिर भी इन संतों का जितना ध्यान फुटकर पदों, साखियों वा अन्य ऐसे पद्यों के लिखने की ओर था उतना कथात्मक रचनाओं की ओर नहीं था और यह प्रवृत्ति इनमें कदाचित् विविध पंथों का निर्माण आरंभ हो जाने पर ही जागृत हुई। पहले के संतों का मुख्य ध्येय अपने सिद्धांतों एवं साधनाओं का स्पष्टीकरण तथा प्रचार मात्र था और उसके लिए वे प्रयत्नशील रहा करते थे। पीछे आने वाले संतों ने अपनी सांप्रदायिक प्रवृत्ति के अनसार, अन्य प्रचलित धर्मों वा संप्रदायों की अनेक बातों का अनुकरण भी आरंभ कर दिया। वे अपनी प्रचार-पद्धति में उन सभी बातों का समावेश करने लगे जिन्हें दूसरों ने अपना रखा था। विक्रम की १७वीं शताब्दी के प्रायः आरंभ से ही सगुणोपासक भक्तों की रचनाओं पर पौराणिक रचना शैली का प्रभाव पड़ने लगा था। वे लोग 'रामयण' एवं 'महाभारत' के अतिरिक्त 'श्री मद्भागवत' जैसे पुराणों की विविध कथाओं की भी चर्चा करने लगे थे। लगभग इसी समय सूफ़ी लोगों की मसनवी पद्धति के आधार पर लिखी जाने वाली रचनाओं का भी आरंभ हुआ इस कारण तत्कालीन हिंदी-कवियों का झुकाव, क्रमशः चरितों एवं कथाओं के लिखने की ओर भी हो चला। संतों के कुछ पंथों का निर्माण तबतक होने लगा था किंतु उनके प्रवर्तक संतों की रचना-पद्धति अभी तक कबीर साहब आदि पूर्वकालीन लोगों का ही अनुसरण करती जा रही थी। पीछे आने वाले, संभवतः प्राणनाथ एवं धरणीदास ने उक्त नवीन शैली को पहले पहल अपनाया और तब से यह भी प्रचलित हो चली।
संतों की रचनाओं का सबसे प्राचीन रूप उनके पदों एवं साखियों
में ही दीख पड़ता है। पदों की रचना, वस्तुत: हिंदी भाषा के आदि
युग वा अपभ्रंशकाल से ही होती चली आई है और उनका प्रारंभिक
रूप हमें बौद्धों की चर्यागीतियों में मिलता है। कहा जाता है कि इन