पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४५१

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४३८ शत-क्र । कर लिया था । अतएव कामुक्त हो जाने पर जश्र ये गिरनार पर्वत पर किसी महात्मा के संपर्क में आये तो इनके जीवन में काया पलट हो गया और इन्हें शांति मिल गई ।फिर तो ये उधर से लौटकर काशी आ गए और वहाँ पर के झरघाट के निकट रहने वाले महात्मा कालू राम अघोरी से दीक्षित हो गए । यह घटना सं० १७५४ में हुई थी और तबसे ये अधिकतर काशी व उसके आसपास ही रहते रहे । इन्होंने अपने प्रथम गुरु बाबा शिवाराम की स्मृति में में चार मठ भिन्नभिन्न स्थानों पर स्थापित किये और उसी प्रकार बाबा कालूराम की भी स्मृति में अन्य चार मठ बनवाये । इनका प्रधान स काशी के कृमिड्ड पर है जहां पर सं० १८२६ में इनका देहांत हुआ था। और जहां इनकी तथा अन्य लोगों की समाधियां हैं । इनकी प्रधान रचना, विवेकसार' है जिसे इन्होंने सं १८१२ में लिखा था और इनकी अन्य छोटी-छोटी पुस्तकें ‘रामगीता’, गीता- वल’, ‘राम रसाल, अदि हैं जो सभी प्रकाशित हो चुकी हैं और जिनके द्वारा इनके ‘अवधूत मतपर बहु कुछ प्रक: बा पड़ता है। इनके ‘विवेक सार' से पता चलता है कि इनके मत एवं संत- मत में प्रायः कुछ भी अंतर नहीं है और जिलांत एवं साधना दोनों की दृष्टियों से सिंचार करने पर ये भो क्वोर साहब द्वारा प्रचलित किये गए विचारों के हो समर्थक जान पड़ते हैं । इनकी शान र नाओं की शब्दावली तक में संतमत की छाप स्पष्ट लक्षित होती। है । इनके दोहों एवं पदों की भाषा बहुत सरल सोधी-सादी और स्पष्ट है और इनके कथन में वह शक्ति भी पयो जाती है जो बिना निजी अनुभव के कभी उत्पन्न नहीं हो सक तो । पद समा (१) प्रदT पड़ी सबद स्या हैठेक? सगन मस्त खुश हले , नाम धनोदा ग्यारो। जीवन अरन काम कामादिक, सैन सब बि पारा 1१।