पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४५२

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समयुग (उत्तरार्द्ध) ४३९ बेब कितेश करनि लज्जा करचिता चपल नेवाये। ने अचार कई राख, संगत रख सचाते ।।२है॥ अमें आसोच सोच ना आमैंकोड जम अनि निहारा। रहत अजानि जानि के यू डत, सूतन नह उजियारो 11३।। उतरत चढ़त रहत निलिवर प्रभज यदि चिचाते। राम किना यह गैल अटपटी, गुरु गैस को पतियाो ४। पैड =नाएं । द : का 7 सचारो-=सत्य कई व बा सच्चे पुरुष की । विडंबना (२) संतो भई भूल्य िजग बोरनोयह के से करि कहिये । याहीबड़ो अचंभझे लगत, समुभिक्षा समु िउर रहिये ।१। कथे शाम असनान अजय , उरई कपट समानी। प्रगट कृड़ेि कब्रि दूर बनवतसो कैसे पहचानी 1२॥ हाड़ ग्राम अरु मांल रक्त , सज्जा को अभिमानी। तह व श्य पंडित कहलावतवह कसे हम मानी है । पढ़ पुराण कोरान बंद सतज'व दया नोह जानी। जाँवनि भिन्न भाव कर मारत, पूजत भूल भवानी ३४। यह अ दुष्ट सूद नह तनिको, मनमें रहे रिसामी। अंबह अंधई डगर बतावत, बहिरहि बहिरा बानी। राम किन सतगुरु सेब बिनु, भूलि सरयो प्रशानी ।५। अठ परमतत्व जो अगोचर है । रेखता इब्द का रूप सांचो जगत पुरुष है, शब्द का भेद कोइ संत जाने। शब्द अज अमर आ द्वितीय उप्रापक पुरुष, संतमूह शब्द सुविचार आमैं । चंब में जोति है जोदि में बंद हैं, औरथ अनुभौ करे पेक माई। दाम फिना अगम यह राह बीकी निपट, निकट को छांट्रि के प्रति में १५।