पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४५६

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४४२ ए की सेवा सप्ध की संगतनियुदिन बढ़त सवाई 187 दुल नदास नाम भज व दे, ठाढ़ फाल पछिछताई 1१०। । प्रभ रम -भरणज्योति । ताड़ी लाई=तारी लगायें समाधि में लीन रहते हैं । बिरहानुभूति (५) सांई रे रे कारन नैना भेष बैरागी। तेरा सत दरसन चहाँ, कयू और न मांगते ।१ । निरु बशर तेरे नानकी, अंतर बुनि जागी। फेरत हाँ माला सत्र, भुसुवनि झरि लागी ।२। पलक तजी इत उक्ति, मन माया त्यागी । दृष्टि सदा संत सनमुखीदरसन अनुरागी ।५३। सतनाते रते मन, दाधे बिरहागी 1 मिलें प्रभु दूलन दास के, करु परम सुभागी ।४। । फरत हों. . . लागी -=अश्रुबिंदुओं की झड़ी द्वारा मानो में सदा अप की माला फेरत रहता हूं । कठिनाई (६) सांई भजन ना कैरि जइहूं। पांच तसफर संग लाप, मोहि हटकत धाइ 11१। चहत मन सत्संग करमो, अधर छेि न पाल । चढ़त उतरत रहत छिन बि, महि तहें ठहराइ (२है। कठिन फांसो अहै जगकी, लियो सबह बताइ । पास मन मनि नैन निकटहसत्य गयो । भुलावे ।३।॥ जगजिवन सतगुरु करg बाया, चरन . सन पठाइ। दास दूलन बस सतसर, सुरत वह अलग ५५४। हटकत =रोकते रहते हैं । अधर ; गगन मंडल में, परमपद में ।