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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४६

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भूमिका


चर्यागीतियों वा चर्यापदों के पहले से भी कतिपय वज्रगीतियों की रचना होती आ रही थी। वज्रगीतियाँ अभी तक अधिक संख्या में उपलब्ध नहीं हैं, किंतु जो कुछ भी मिलती हैं उनसे जान पड़ता है कि वे ही चर्यापदों का आदर्श रही होंगी। दोनों की रचना अपभ्रंश के प्रचलित छंद में ही हुई है, किंतु चर्यापदों में कुछ नवीन बातों का भी समावेश पाया जाता है। उदाहरणार्थ वज्रगीतियों में जहाँ मात्रा का क्रम १३+१२ का चलता है वहाँ चर्यापदों के अंतर्गत वही केवल ८+७ अथवा कभी ८+८+१२ (वा कभी-कभी १० का ही) मिला करता है और पहले में जहां अभी तक द्विपदियाँ ही दीख पड़ती थीं वहाँ दूसरे में त्रिपदियाँ भी आ जाती हैं। इसके सिवाय वज्रगीतियों में कहीं किसी ध्रुव पद का स्पष्ट पता नहीं चलता किंतु चयपिदों की ये दूसरी द्विपदी में ही आ जाते हैं। चर्यापदों को प्रायः भिन्न-भिन्न रागों के अंतर्गत संगृहीत करने की भी प्रथा है और यह उनके किसी न किसी रूप में गेय होने के ही कारण है।

बौद्ध सिद्धों के उक्त चर्यापदों का रूप, इस प्रकार, उन गेय पदों के ही समान है जो संगीतज्ञों के अनुसार, 'प्रबंध' कहलाते आए हैं। प्रत्येक ऐसे प्रबंध के पाँच अंग हुआ करते थे जिन्हें क्रमशः उद्ग्रह, मेलापक, ध्रुव, अंतरा और आभोग नाम दिये जाते थे। इनमें से उद्ग्रह सबसे पहले आता था और उस मेलापक का स्थान होता था जो उद्ग्रह और ध्रुव का पारस्परिक मेल वा संबंध स्थापित करता था। 'ध्रुव' प्रबंध अर्थात् पूरे गीत के लिए अनुपद वा बार-बार दुहराये जाने वाले अंश का काम देता था और अंतरा इस ध्रुव तथा अंत के आभोग का संधिस्थल बन जाता था! आभोग वा प्रबंध का अंतिम अंग, इसी प्रकार, पूरी रचना के आशय का परिचायक हुआ करता था और उसी में अधिकतर उस व्यक्ति का नाम भी रहा करता था जो उसका रचयिता होता था। संगीतज्ञों के इस 'प्रबंध' का