पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४६२

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४४ गोइ कहे अमृत सुरगई महिदेव पिचें क्यों खिर खिर जाते हैं। सब श्रत बातों का बात, अमृत है संतन के साथ 1६। दरिया अख्त नाम अनंत, जाको पी पी अमर भये संत ७ सुरगए ==स्वर्ग । संसार (६) संतो कहा गृहस्त कहा त्यागी। जहि देथू तेहि बाहर भीतर, घट घट माया लागी ।टेक। साटी की भीत धन का खैब, न अंगुन में छाया। पांचतत्त प्रकार मिलाकरसहुजां गिरह बनाया 11१३। मन भयो पिता मनसा भइ माई, दुख सुख दोनों भाई । असा दुस्ना बहिनें मिल कर, गृह की सौंज बनाई ।।२५ मोह भंघो पुरुष कुबुधि भडु घरनी, पांचो लड़का जाया। प्रकृति अनंत कुटुबी मिल करकलहल बहुत उपाया 1३। लड़कों के संग लड़की जाई, ताका नाम अंधीरी। बनमें बैठी घर घर डोले, स्वारथ संग खयोरी\४। पाप पुन दोऊ पाड़ पड़ोसी, अनंत बासना नाती। राग द्वेष का बंधन लागा, गिरह बना उत्तपाती ।५। कोइ गृह मड गिरह में बैठा, बैरागी बन बासा। जन दरिया इक राम भजन बिनघट घट में घर नासा ।६! गिरह -=गृह , घर 1 सज =सामान, सामग्री। कलह्ल= कलह : मांड =बनाकरसुसज्जित करके । आमोलब्धि (७) दरिया बरबारा खुल गया अजर किनारा टक।। चमकी बोज चली ज्यों धारा, ज्यों बिजली बिंध तारा 1 १। २