सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ले मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४५ स्वयं कबीर साहब ने ही स्थन देकर दीक्षित किया था जो हो, गरीब दास ने कबीर साहब को अपनी रचनाओं में अनेक स्थलों परस्पष्ट शब्दों में, अपना गुरू स्वीकार किया है । । गरीबदास की रचनाओं की संख्या बहुत बड़ी बतलायी जाती है । । प्रयाग के बेलवेडियर प्रेसद्वारा उनकी चुनी हुई बानियों का एक संग्रह गरीबदासजी की बानी’ के नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें उनकी साखियों, सबेयोपदों, आदि के उदाहरण हैं । उनकी रचनाओं पर कबीर साहब के सिद्धांतों की छाप स्पष्ट लक्षित होती है और उनकी शैली भी प्राय: उन्हीं की है । उनके परमात्मा सत्त पुरुषहैं जो 'निरगुन, एवं ‘सरगुनदोनों से ही भिन्न और परे की वस्तु है । वह पार ब्रह्म महबूबहमारे पिंड में भी बर्द्धमान है जिस कारण स्वानुभूति द्वारा उसका परिचय पा लेना नितांत आवश्यक है । इसके लिए उन्होंने सुरत, निरत, मन एवं पवन इन चारों के समीकरण की साधना भी बत लायो है किन्तु इसमें भी सफलता, उनके अनुसार, तभी हो सकती है जब हमारे भीतर पूर्ण विश्वास का अस्तित्व हो । साहब वा परमात्मा 'परतीत' के सिवाय कुछ नहीं है। संत गरीबदास ने संतों एवं भक्तों के नाम बहुत बार लिये हैं और उनके दृष्टांतों द्वारा अपनी बातें प्रमाणित की हैं । कबीर साहब के प्रति उनकी बड़ी गहरी निष्ठा है और वे उनमें, बस्तुतः , तेज ' परमात्म तत्व के ही दर्शन करते हैं । उनको भाषा पर पंजाबीपन का प्रभाव है, किंतु वह भी इतना नहीं हैं जिससे किसी कठिनाई का अनुभव किया जा सके। पद आत्मस्वरूप (१) सेस सहस मुख गाव साधो, सेस सहस मुख गये 11टेका। वह बिस्तु महेसर थाके, नारद नाद बजावे। सनक सनंदन ध्यान धरत हैं, दृष्ट गुट न आये है१।