सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संध्ययुग (उत्तरार्द्ध! ४५. काम औोध निस्ा नहींआसा नह राई। सच परचा भयाजब कू ड़ न भाख २। एक मेजर निरंजन, सब ही घट देखे। नीच कैंज अंतर नहीं, सब एके पड़े ।३। सोई साध सिरोमनी, जप तप उपकारी। भूले उपदेस रे, बुर्लभ संसारी।४। अकल यकीन पढ़ (य है, भ ले चेतै। 'सो साधू संसार , हम बिरले भेंट है। सूरत खोवे सत कहैसांचे स लाई। सो सायू संसार में, हम बिरले पावे ।६है" निरख निरख पद बरत हैं, जिच हिंसा नाहीं। चौरासी तारन तरनआये जयण साहीं।७।। इस सौदे ढं ऊत, सौदागर सोई। भरे जहाज उतार दे, भ सागर लोई ३८। भेष धरे भाणे फिरें, बहु साख सहैिं। जानें नहीं विवेक क्ष, खर के प्यूं ही 1 है। उनमुन में तारी लगी, जहं अजय जयंता। सुन्न महल अस्थान है, अहं इस्थिर डेरा। दास गरीब सुभान है, सत साहब मेरा 1१। सराय =सराहता है ' कूड़ =बुरे वचन, अपशब्द t एके ==एक समान । अकल . . दे - -बुद्धि में विश्वास को प्रश्रय देखे । सू रत--अशुद्धता की स्थिति। रीसै =रेकने व प्रलाप करते हैं । इस्थिर स्थिरनिश्चल ने सुभान =पबिन । भंवरत (४) दमक्षा नहीं भरोसा साधो, अब कर चलने व्ा सच हैठक।