पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४७०

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ड गैब से आया औौ रौब छिप जायगा, गैव ही रौब रचिया पसारा 1३। प्रानॐ सोध कर सू ल दर हो, बेद के धुंध से अलख न्यारा है बद कुरान के छड़ दे बाबरे नू र ही दूर कर ले जूहारा 1४। करसना भरसना छांड दे बाव, छाड़ दे बरत इक बैठ ठहों। दास गरीब परतीत ही कहे ब्रह्मांड की जोत इस पिंड सहो ५५ किरत =कतंन । धु व =धुंधलापन, अंधेरा । जुहारा= अभिवादन । आरछ क्या राज क्या रेत अतीत श्रतोम रे । जोधा गये अपार न चपी सीम रे क१। यह दुनिया संसार बतासा खांड का। जोरा पीके घोर बिसरजन मांड का १२। काम क्रोध मद लोभ बटाऊ लूटहों। हिरस खुदी घर माह सुबहू विध कूटह 1३।। संस्सा सोग सर सुरसरी बहत है । नाहों चौबह भुवन, गमन में रहत है ।४। बुरमत बोजल माह बल बहु भांत है। सतगुरु भैठा होय तो निवें सांत है ।५! आजिज जो अमाथ परा है बंद में। हरे हां, कहत बास गरीब जगत सब फेंद में 11६।"