पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४७१

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संत-काव्य । (२) सांवत श्र मंडल क गये बहु सूर रे। राजा रंक अपर मिले सब धर रे 1१। । रूई लपेटी आग अंगीठी आठ रे। कोतवाल घट माह मांरता काठ रे ।।२ । नरक वह नौ द्वार देहरा गंध रे। क्या बेखा कंलि अांहि पड़ा क्यूं फध रे 1३॥ हासिल का घर दूर हजूर न चालता। ह हां, कहता दास गरीब हटी में लाल या १४। रेत औरैयत । अती =यतोम, अनाथ । न . . रेउस बेहद को न पा सके । जोरारा .. .सांडा =फिर भी मनुष्य मांड का थोवन सही पिया करता है । सुरसरी नदी । बसे =जलता है । सारता. . . रे काठ के छेद में पैर डाल कर बदी करना। हासिल = वास्तविक तस्व। आरती अदली आरत अदल बखादा। कोली बुने बिहंगम ताना टेका। ज्ञान का राछ यान को दुरिया। नाम का धागा निःधे जुरियां भ१। प्रेम को पान कमल की खाडी। सूरत का सूत बुने निज गढ़ी है। नूर को नाल फिरे दिन राती। जा कोली काल म खाती ।३' कल का फंडा धरनो गाड़ा। महिर गझीना ताना गड़ा ४।