सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४६४ संत- साथल-हत्य (१) । । अब कहे सुने का होई । जो कोइ सबद अनाएँद में, शुरु नानी है सोई 1१५ थके बाद चलत् ा था, थाके निबर लोई । प्यास बाला के मिले न पानी, श्रन् प्यासे जल बोही है।२। पहले बोज फूल फल लगाफूल देखि बीज नसाई । जहां बास तहां भरा नाहों, अनबासे लपटाई ।३। जहां गगन तह तारा नाहीं, चन्द सरका मेला । जहां सुर तहां पबन न पानी, यदि बिधि अविगति खेला ।४। जब सरूप तब रूप न देखे, जहां छह तहां धूपा । बिनु जल नदिया मांछ बियानी, इक बकता इक चूपा ५५। अच्छ एक तिस तन लागा, अमृप्त फल बिनु पीया है। कई दरिया कोई संत बिबेको, मूधत उठिके जीया १६।। यह पद सुश्त शब्द योग की साधना, उसकी सिद्धि तथा संत की स्थिति का वर्णन करने के लिए लिखा गया है और इसमें, उल्टवांसी की शैली के अनुसार उसकी प्रायसारी बातों को स्पष्ट करने की चेष्ठा । की गई है । बोही=पूर्णतः डूबा हुआ, मग्न । आत्माराम (२) साधो ऐसा ज्ञान प्रकासो । नतम राम जहां लगि कहिये, सबै पुरुष की बासी 11१।' यह सब जोत्ति पुरुष है निर्मल, नतह तह काल निवासी। हस बंस जो है निरदागाजाम भिले अबिनासो 1२।