सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुण (उत्तर) ४६५ सदा असर है मरे न कबहीं, मfह वह सक्ति उपासी ने आब जाय खमै सो हूजा, सो सम काले नासी ३ । तेज स्वर्ग नर्क के आसए, या तन वे विस्वास । है छपलोक सभनिल न्यारा, नाह ठंह भूख सियासी है।४। केता कहे कवि कहे न जाने, के रूप म रासी के वह गुन-रहित तो यह गुन , ढूंढत फेिरे उदासी 1५। । ‘सांये कहा झूठ जिमि जानहु, सांच कई दुरि. जाली । कह दरिया दिल दगा िकरु, काटि दिहें जम फांसी ।६।। यह यविमाली=जो कुछ अस्तित्व में हैं बह एक मात्र परमात्मतत्व है जो अविनम्बर है औौर शुद्ध जोश जीवाश्म उसी का अंग है । छपलोक ..- - स्यारा = रनपद सबसे विलक्षण है । दंग= कंपठ तथ7 संशय । वस्तुतव (३) जह तक दुष्ट लखन में अवैसो माया का चीन्हा। का निरगुन का सरगुन कहियेवे तो बोर्ड ने भीना 1११ दीपक जगे प्रकास ऊहां तक, बाती तेल मिलाया। आको जोति जगत में जाहिर, भेद सो बिरले पाया है२है। परस पंखान पारस जो कहिये, सोना जुति बनाई । हि पारस से पारस भयम, सो संतन में गाई ।३। परिमल बास परासंहि बेचे, यह वो चन्दन हुआ । जेहि पारंस से परिमल नयन, सो कबहों नहि मूआ (४। जो.पारस भू गो यह जनेकीट से भूग बनाई। वाका भेब लखे नह कोई, अपने जाति सिलाई ५। सनद परी मत गुरु के पास, भरमि रहा सब कोई । बिरला उलटि आपको चोन्हा, हंस बिमल मल धोई ॥६४