पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४६६ संत-काव्य जल थल जीब जहां तणि गयापक, बेटे जिते वे भशखा। वाकी सनद कबहूं नहि आईमृत अमाने राखे १७। सतगुरु शान सदा सिर ऊपरजो यह भेद बताये । कहैं दरिया यह कथनी मथनी, बह प्रकार से गवं ।।८है। छात्र (३) जहें ....जहां तक वस्तुएं दृष्टिगोचर होती हैं । सनद =प्रमाणप्रमाणित करने की युक्ति । किते =इस्लामियों, ईसाई इयों तथा यहूदियों के धर्मग्रंथों में 1 अमाने उस अपरिमित वअ इयत्ता- शून्य को । सथनी=सार तत्त्व निकालने की क्रिया। (४) मनु सद जो करु विवेक, अगस पुरुष हृह रूप न देख ५१। अठदल कमल सुरति ली लायअछा जपि के मन ससुझाय ॥ भंवर गुफा में उलटि जायजगमग जोति रहे छबिछ य 1२। बंक नाल गहि खंचे सूत, चमके बिजलो मोती बढ़त है सेत घटा चहुं ओर घनघोर, अजरा ढूंढधा होय जोर ।३३ अमिय कंबल निज को विचार, चुवत बुन्द जद अमृत धार ॥ छव चक्र खोजि करो निवास, मूल चश्नत जहूँ जिधको वास ।४। काया खोजि जोगि भुलान, काया बाहर पद निबन । सतगुरु सब्द जो करे खोज, कहें रिया तब पूरन जोग है।५। । (४) अछपा=जो प्रत्यक्ष है । आमिय कंवल = सहस्त्रार। अब चक ... वास = छहों चत्रों का भेदन कर उस मूल्य चश्में ही स्थिर हो जाप्र जहां जोबामा का अपना स्थान है । काया-=28 पिंड के ही भीतर त्रिकुटी से नीचे की ओोर ।