पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुष (उत्तरार्द्ध) ४६७ स्वानुभूति (५) हरिजन प्रेम जुगुति ललचाना । सतगुरु सब्द हिये जब दी, सेत धुजा कहाना है१। हदे कवल अनुराग उठे जबगरज घुमरि घहराना । अमृत बन्द बिसल तहें झलकरिमिझिमि सघन सोहाना 1२। बिगसित कंवल सहसदल तहां, मन मधुकर लपटाना । बिलगि बिहरिफिर रहत एकरस, गगन मधे मुहाना 1३t उछरत सिन् असंख तरंग लहिर लहरि अनेक समाना । लाल जवाहिर मोती लामें, किमि करि करत बखाना ।४।" बिबरन बिलगि हंस गुन राजितमानसरोवर जाना । मंजन मैलि भई तन निर्मल, बहुरे न मैल समाना ।५।॥ एक से अनन्त अनंत से एक है, एक में अधृत समाना। कर्वी दरिया बिल चसमां करिलें, रतन झरोखे जाना ६। (५) सघन =अविरल, एक में एक लगा हुआरा सा । विलमि. एकरस =पृथकत्व की अनुभूति करकरके एकरसता का आनंद उठाता । हुआ । उछरत . . . . समान =आन्दोल्लास की अनंत लहरें उठती तथा विलीन होती रहती हैं। उसका महत्व (६) जाके दिये गगन हरि लायी । बिना घटा घन बरिसन , सुरति सुखम्मा जागा ।१। लागर अजपा जाप जर्ष निस बासर, रह जगत से बागी । मूल कह में गम्मि बिचारे, सोइ सबा जन भागी ।२१।