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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८१

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सतकाव्य अठबल कंबल झरोखा तहवां, माम विमल रस पागी । तिल अंरि चौकी दना दरवाजा, ताहि खो बैरंगी 1३है। जोरे जारे सब्व बनत्व, राग गावै सो रागी । अलख लद कोइ पल विचारेसोइ संत अनुरागी है।४५ थकित भये मन गीत कचितनभौ विषय के स्यागी । सब्द सजीयन पारस परसेडसीतल भो तन प्रगी ।५। इप्त उत कहे काम नहिं अश्वे, सह लेने मांगी। कह दरिया सतगुरु की महिमामेंटे करस के दागी गई। बागी=विपरीत वत्तिका । गम्मि =प्रवेश । बना - दला बा कण जैसी सूक्ष्म छिद्र सा। दागते =संस्कार । । आत्मपलब्धि (७) मैं कुलती हसस प्रियारीजांचत ले बपक बारी 1१। गंध सुगंध थार भरि लोन्हा, चन्दन चर्चित आरति कीन्हा । फूलन सेज धुगंध बिछायों, प्रापन पिया पलंग पौढ़ ट्रों २। सेचत चरत रंसि गई बोतो, प्रेम प्रगति तुमहीं सों रोती । कह दरिया ऐस चित लाग, भई सुलझनि प्रेस अनुशगा ।३।। रेखता को पकड़ तब डर पालो मिले डार गहि पकड़ नह पेड़ यात्रा। देष दिच दृष्टि असमान में वन्द्र है, चन्द्र की जोति अनगिमित तारा है। आादि अंत सब मध्य है मूल में, मूल में फूल व केति डारा । नाम निरंप मिडैन निर्मल बरे, एक से अनंत सब जगत सारा 1१।