पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८२

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४६६ मध्ययु ग (उत्तरार्द्ध ) पढ़ि बंद कितेश विस्तार वक्ता कर्य, हर बेलू न वह न्यू र व्यारा । निःपेच निन निःकर्म निर्भर्म , एक सश सत नाम प्यारा । तर्क नाम मनी कर काम को कांघु , खोज . सतगुरु . भरपूर सूरा। असंसानके बुलंद मरकाश झा, दरियाव को लहरि कहि बहुरि मूरा क२ा। पेड़ वृक्ष का तना में पालो =पहलवपत्तियां 1 यारा है। सिन् । निपंच =बिना किसी उलहन का । मनी =अहंकार । काबू =काबू में, वश में । गरबाब =निमनलोन । मूरा जुड़ा । चौपाई माम प्रताप जग जुग बंलि अवै। सकल संत गुन संहिसर गाधे है। संत रहन भव बारिज बारी है सदा सुखी निरलेप बिचारी 1१५ जल कुकुही जल साह जो रहई । पानी पर कहीं नह लहई । वहीं मधे धूत बाहर आावें । फिरिके धृत महि उलटि समावे 1२। फूल बसे तिल भया फुलेला । व रि तेल नह तिल सँह मेला । इमिंकर संल प्रसंत गुन कहई । भरे 1 कलंक नाम गुन गहुई है३ । औघट घाट लीं सो संता जने जान सदा ! । सो गुनवंता (दरिया सागर से ) संत ... बिचारी ==संत लोग संसार में इस प्रकार उदासीन रहा करते है जिस प्रकार सरोवर के जल से कमल निर्लिप्त रहा करता है । जल कुकुही एक प्रकार की जल चिड़िया जिस पर पर कभी पानी नहीं ठहरता।