पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८५

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४७२ संकाय विनय (१) रखो जी लाल गरीब निवाज । तुम बिन हमरे कौन सँवारेसवहीं विगरें काज ॥११४ भक्त बल हरि नाम कहाबो, तित उधारन हर। को मनोरथ पूत जनको, सीतल दृष्टि निहार २है तुम जहाज में फाग तिहाो, तुम त िअंत में जाऊं । जो तुम हरिजू मारि निकासो, और ठौर नह प्रार्ड ३ । चरनदास प्रभु सरन तिहारीजानत सब संसार । मेरी हंसी सो हँसी तिहारीसुरें देखि बिचार ।४हैं सर्वव्यापी (२) हरिको सकल निरंतर पाया । माटी गाँटे खाँड खिलौने, ज्यों तरवर में छक्या ११। उयों कंचन में भूषण राजे, सूरत दर्पण नहीं । पुतली खंभ व भ में पुतली, हुहिथा तो कछु नहीं ।२t उयों लोहे में जौहर परगट, सूतह ताने बाने । ऐसे राम सकल घट हीं, जिन सतगुरु मह जान।३। मेहंदी में रंग गंध फूलन में, ऐसे अश्रु सया । जल में पाल पाले में जल, चरनदास बरसाया ।४। ज्यों .... परगट =जिस प्रकार लोहे के किसी धारदार हथियार में उसकी ओय लक्षित होती है । अब - (३) जबसे एक एक करि माना। कौन को को सुनने हाराकोहै किन पहिचाना 1१४ तब को ज्ञानी ज्ञान कहां है, य कहाँ ठहना। यानी ध्येय जहां लग पइये, वहां न पइये ध्यान २१ ।