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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८६

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अध्यटुरा (उत्तरार्द्ध ) ४७३ जब कहां बंधे मुक्त भुगतइयां, काको अबन जाना । को सेवक अहं कौन सहायक, कंहां लाभ कि इन 1३। जधको उपए है कौन भरते है, कौन करे पंछिताना । । को है जगत जंगत को कतईबैगुणको अस्थाना ।४। तू तू तू अरु में में नांहो, सब हो दे बिसराना । चरनदास शुकदेव कहा है, जो है सो भगवाना 1५)। थ =जानी जानेबूली वस्तु । भुगतइया टोक्ता। भुगुण को स्थाना =रजोगुण, तमोगुण एवं सतरह कण नामक तीनों गुणों का आधार । (४) : जण में दो तारण को नोका । एक तो ध्यान मुरू का बहोरी, चं मान बनोका १। कोटि भiति करि निश्चय कीयो, संशय रहीं न कोई ! शास्त्र बद औ पुराण टटोले, जिनमें निकसर सोई, १२। . इनहों के पीछे सब जाइन, योम यज्ञ तप दासा । भविधि नौधा नेन नेम सब, किस भाव अरु शना 1३ और सचे संत ऐसे मानो, अन्न बिना भुस जैसे । टत कूटत बहुत ा, भूख गई नहिं तैसे १४। थोथा धर्म वही पहिचानते, तामें ये दो नही । चरनदास शुकदेव कहते हैं, समति देखि मन मांही ५५. बही (५) भाई रे अवधि बीत जात । अंजुली जल घटत जैसेतारे ज्यों परभाल ३१। स्वांस जी गाड़ेि तेरेसो घंटत दिन रात । साधु संगति पैंठ लागी, ले लगे सोइ हाथ ।२है। बड़ों सौदा ‘हरि संभाडे, सुसिरि लीजे प्राप्त । काम क्रोध दलाल ठगिया, संत बनि इन हाथ 1३