पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८७

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४७४ संत काब्ध लोभ मोह बजाज आलियालगे हैं तेरि धात । शब्द गुरू को रात्रि हृदयतो दगा नहि बात १४। अपनी चतुराद बुध , मति फिर इतरात । चरन दास शुकदेव चरनन१रस जि कुल जात ५५। । (६) साधो जो पकी सो पकये। आ जनो टेक गही सुमिरन को, ज्यों रिल को लको 1 १। ज्यों सूरा ने सस्तर लोहोज्यों बनिये ने लखीं। ज्यों सतवंती लियो सिंघौरातार गहो क्यों सकरी ।२॥ ज्यों कामी को तिरिया प्यारीज्यूं किरपित दसरी। ऐसे हम रास पिया, ज्यों बालक ममरी ।।३है। ज्यों दीपक ऊं तेल पियारोज्यों पावक हूं समरी। ज्यूं मछलो लोर पियारेबिछुरे से जमी ४। साधो के संग हरिगुण गांआ, ताले जीवन हो। चरनजात सुकदेव दृढ़ायो, और टी सब गमरी १५।। हारिल =एक चिड़िया जो प्रायः अपने चंगुल में कोई न कोई लकड़ीं बा तिनकार लिये रहती है। सस्तर-=शस्त्रहथियार। तखरी=-तकड़ी (पंजाबी), तरा । दमी=एक पैसे का आठवाँ भाग । किंपिनयण। ममरी=माता। ससsसेमर को रूई। देखें. ..=मर जाती है। गम==रं। (७) सो गुरुगम संगन भयर मन मेरा । गगन भंडल में निज घर कीन्होपंच विषय नह घेरा १। प्यास बुध घा निद्रा नह ध्यापी,अमृत अंचवन कोन्हा। छटी पास बस नह कोई, जग में चित नह बीन्हा ।२।