पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९२

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मध्ययुग (उत्तरई) ४५७ . न मूरख स्याग न कर सके, नवन्त तजि दे। चौंकायल मृग ज्यों रहै, कहीं न सारे गह १९। लाज ताँक गल में पड़ा, ममता बेरी पांय । रसरी सूरुख ने की, लीन्हें हाथ बंधाय1२०। ज्यों तिरिया पोहर बसेसुरति पिया क के महि। ऐसे जन जगमें रहेहरि भूले नाहि २१।। निराकार निलप्त हूं, यही जान अकार । आापन बेही मान स्त, यही ज्ञान ततसार १२। काहू से उपजरे नहीं, बाहें भो न कोय। वह में मर मार नहीं, राम कहावै सोय 1२३। जैसे कछुवा सिसिटि है, श्रापुहि मांहि समय । तैसे सानी श्वास मेंरहे सुरति लौ लाय है२४॥ आप ब्रह मूरति भयो, ज्यों बुशगल जल महि। सूरति विनर्स नाम संग, जल बिनसत है नांहि ।।२५। जल थल पाक राम है, राम रमो सब महि। हरि सब में सब राम में, और दूसरो नहि ५२६)। मावक =ए प्रकार का छोटा किंतु तीखा बाण 1 अक्त =जगतसंसार। सतवंती=पतिव्रता। बरबर-=बबूल। लेतौल =जो उसमें लीन होता है । चौंकायल चौकन्ना । सा सजाता । बुदगलबुलबुला । संत शिवनारायण संत शिव नारायण के जन्म और मरण की तिथियां अभी तक निश्चित रूप से विदित नहीं हैं । उनकी रचना संत सुन्दर’ में किये गए कतिपय उल्लेखों के आधार पर उनके जीवनकाल के विषय में कुछ अनुमान किया जा सकता है 1 उस ग्रंथ में स्पष्ट लिखा मिलता है