पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

स्थ्य ग (उत्तरार्द्ध) ४८१ हो सकी है' : अपनी पुस्तकों में उन्होंने सबसे अधिक ध्यान पूर्ण संत को स्थिति प्राप्त करने की ओर दिया है और उसे स्वानुभूत्ति पर ही आश्रित बतलाया है । संत की उस दशा को वे संतदेश' की स्थिति के रूप में अभिहित करते हैं और यह नाम भी वैसा ही प्रतीत होता है जैसा अन्य संतों के संत लोक, अमर लोक, अभय लोक आदि अनेक नामों द्वारा प्रकट होता है । प्रत्येक मानव में इनके अनुसार, चालीस प्रकार की त्रुटियां हैं जिन्हें दूर कर नैतिक आचरण अपना लेने पर वैसी स्थिति आप से आप अ जा सकती है । स्वावलंबन एवं स्वानुभूति संत शिव- नारायण द्वारा बतलायी गई साधना के शिनाधारस्वरूप । हैं । प्रत्येक व्यक्ति को सत्य का अनुभव, उसकी सावना एवं पहुंच के अनुपात से ही हआ करता है, अतएब प्रत्येक की स्थिति भी, उनके अनुसार, पृथक्-ही संभव है 1 उनकी रचनाओं में प्रायः एक ही प्रकार की बातें सर्वश्र कही गई दीख पड़ती हैं। फिर भो उनकी कथनशैलो बहुत ओजपूर्ण है और जान पड़ता है कि अपनी अनुभूत बातों को महत्ता में दृढ़ आस्था रखने के कारण, उन्होंने उन्हें बारबार एवं भिन्न- भिन्न प्रकार से कहने की चेष्टा को है । उनकी भाषा भोजपुरी का उनकों रचनाओं पर बहुत प्रभाव है जिसके कारण उनमें अधिक सरसता आ गई है । पद बास्तविक गुरु (१) अंजन ऑजिए निज सोई टक।। सें हि अंजन से तिमिर नासे, दृष्टि निरसल हो। बैद सोई जडे पीर मिटा, बडरि पीर स होइ है१॥ तु सोइ जो अप लई, हिए बिनु नोइ । अंधु सोहूं जो प्यास , बहुरि प्यास न होइ ।।२ा। ३१