पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९७

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४८४ संतकाज्य जो जन पीछे सोश जन जीव, सन गुमान हकार किरतिन 1१॥ गगन बीच भरि मकर तार घरि, चढ़ गए चतुर सुजान। आप जाष जाहिर भयो जबते, बितर गये दारा सुत नतिआ है२है। करनो काम किये जग जबतेकरता तीमि सुझाव। इंगला पिंगला सुमना सुरतेकटिगए का करार कुमतिया ।३। पिय परदेस उदेस न पाबों, पिंय बेलसे केहि भाव। का करों लोभी पिया जैसा रह गयो, राखि पराई थतिया 1४। जो पिथ पाबों अंक भरि लावों, लिज परलोत बढ़ाय। तबहों सुहागिनि प्रान पुरुषकोचढ़ मैदान लड़ी सुर छतिमा ५। जो आया सो जात न देखए, कहां बार कहां पार। जनमत सरत हाट एक बेखा, बकतव सांच झूठ हृइ बतिया ।। बेब पुल बरन बलू बरनतईधन मैिन करि भाग। सो सुनि भू ले मुरु गंवाराभटकत फिरfह जरात भलिभंतिम ५७। केढ़ नाले होत बंg एईि जग, सई विरामर लोग। जास न ब मैं अकेला जाना, खोजत मित्लै न कहू संग तिन्ना ।। शीव नरायन सुरत निरंतर, निरवि अपनी लम्ह। बैठे तख अमल करि अपना, कईि दिन चलहु सूचितकी गतिआ 18। गगन तार सनत गइ रतिआ। तारों को । मकतारबादले की कासवानी का तार। गतिश्धपोता । उदेस सत्ता है वेलप ==रुके । अमल अधिकार । अनोमार-हव (८) विषय वासना छटत न मन से, नाहक नर बैराग करो। जैसे मीन बा बंसी ऑह, जिया कारन प्रान हो। सो रसना बस कियो न जोयो, नाहक इंद्वी साधि सरो।१।