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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५

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में नीरस पंक्तियों की ही भरमार दीख पड़ेगी और उनके उपदेशों में भी कोई आकर्षण नहीं जान पड़ेगा। उनके सिद्धांत-संबंधी वर्णनों में भी, इसी प्रकार दार्शनिक व्याख्या की ही गंध मिल सकती है और उनकी विनयों में कोरी स्तुतियां पायी जा सकती हैं। किंतु संतों की रचनाएं केवल इन्हीं कतिपय बातों से संबंध नहीं रखतीं। उनमें दिया गया गहरी स्वानुभूति का अस्फुट परिचय, उनकी चेतावनियों की चुटीली उक्तियांँ तथा उनमें पाये जाने वाले स्वतःप्रसूत हृदयोद्गार ऐसे हैं जो निःसंदेह सरस एवं सुंदर कहला सकते हैं। इनका माधुर्य और सौंदर्य कुछ अपने ढंग का है और इनकी मर्मस्पर्शिता सिद्ध करने के लिए रीतिकालीन मानदंड का प्रयोग उचित नहीं। रस, अलंकार वा अन्य काव्य-संबंधी चमत्कारों के जो उदाहरण इन रचनाओं में दीख पड़ते हैं वे किसी साहित्यिक प्रयास के परिणाम नहीं हैं।

संतों की रचना-पद्धति एवं संत काव्य की विशेषता के संबंध में, संगृहीत पद्यों के पहले दी गई 'भूमिका' में विचार किया गया है और प्रसंगवश उसके अंतर्गत कुछ ऐसे उदाहरण भी दे दिए गए हैं जो साहित्यिक दृष्टिकोण से भी काव्य की कोटि में रखे जा सकते हैं। इसके सिवाय संतों के अनुसार निश्चित काव्य के आदर्श, उनके संगीत प्रेम, उनके द्वारा प्रयुक्त छंदों की विविधता तथा उनकी भाषा के बहुरंगेपन की भी चर्चा की गई है और यह दिखलाया गया है कि किस प्रकार वे इन सभी बातों के प्रति प्रायः उदासीन से रहते आए हैं। काव्य के रूप से कहीं अधिक थ्यान उन्होंने उसके विषय की ओर ही दिया था और उसे भी सदा अपने व्यक्तिगत रंग में ही रंग कर दिखलाया।

संत-परंपरा के सभी प्रमुख संतों की रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं और कई एक की केवल थोड़ी-सी ही पायी जाती हैं। जिन संतों की कृतियां अधिक संख्या में नहीं मिल पातीं, किंतु जो कई अन्य कारणों से बहुत प्रसिद्ध हैं उनके पद्यों को भी उदाहरण स्वरूप संगृहीत कर लिया