मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४८७ हुई सुन पड़ी जि सके द्वार ये अत्यंत प्रभावित हो गए और उसके रच- चिंता का पता पूछ कर उसकी खोज में आगे बढ़े । उस पद के बनाने वाले संत गुलाल साहब थे जो उसी जिले के भुरकुड़ा गांव , अपने शिष्यों के के साथ संत्सग करते हुए. मिले 1 ये उनके व्यक्तित्व और व्यवहार के प्रभाव में आकर आनंदित हो उठे और उनके उपदेशो को श्रवण कर उनके शिष्थ तक बन गए । इन सभी बातों का वर्णन इन्होंने अपने शब्दों में भी किया है और अपने गुरु गुलाल साहब की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । भीखा साहब तब से बराबर वहीं रहने लगे और गुलाल साहब का देहांत हो जाने पर उनके उत्तराधिकारी भी बने । ये सं० १८१७ से लेकर ३ १ वर्षों तक भुरकुड़ा की गद्दी पर आसीन रहे और सं२ १८४८ में इन्होंने शरीर छोड़ा । इनके जोवन की अन्य घटनाओं का कोई विवरण अभी तक नहीं मिलता। भीखा साहब की रचनाओं में १. राम कुंड लिया २. राम सहन नाम ३ . राम समद ४. रसरग ५. राम कवित्त और ६. भगत वच्छावली प्रसिद्ध है, किंतु इनका अधिकांश बेलवडियर प्रेस द्वारा प्रकाशित भीखा साहब को बानो’ तथा भुरकुड़ा केंद्र की ओर से छपी हुई ‘महात्माओं की वाणी' में पाया जाता हैं और उनमें कुछ इनकी अन्य फुटकर रचनाएं भी मिलती हैं । इनका सबसे बड़ा ग्रंथ ‘रामसबद तथा इनकी ‘भगतवच्छाबलो’ अभी तक कदाचित् कहीं से भी प्रका शित नहीं है । भीखा साहब की रचनाओं में उनके आत्मनिवेदन का भाव बहुत स्पष्ट रूम में लक्षित होता है और इनकी दार्शनिक विचार धारा वेदांत के सिद्धांतों द्वारा प्रभावित जान पड़ती है जि से कहींकहीं इन्होंने किसी न किसी रूप में स्वीकार कर लिया है । इनकी भाषा में भी इनके गुरु गुलाल साहब की भांति, भोजपुरी के शब्दों तथा मुहा- ज्ञों के अनेक उदाहरण मिलते हैं और इनकी रचना में गेयत्व भी
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