पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०२

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अध्ययुग (उत्तरछे ) ४८. पांव पचीस तीन मिलि वाह्य, बनलिउ बात बिगारे । सदा करेड वैषार कपट को, एस बजार पसारे १४है। हम संम अह्म जोथ तुम अतम, वेतन मिलि तन धरे । सकल दोस हमको काहे दइहन चहत हमें न्यारे ५५)। खोलि कहाँ तौरंग नह फेरयो, यह आाहि महिमा रे । बिन फेरे कश्धु भयो न दें है, हम का करहि बिचारे ।६। हरी रुचि जग खेल खेलौना, बालक साक्ष सबारे । पिता अनादि अरल नह मानहराधत रहहिं दुलारे ७। जप तप भजन सवाल है बिरथा, व्यापक जबहि बिसारे । भीखा लखटु नापू अतम कां, सुनना तजg खमरे ८। लज . . करि=शब्दों के हेरफेर द्वारा 1 बनलिउ = बनी हुई भी । बैपार व्यापार । ख्ोलि. . . फेरयो स्पष्ट कहत हूं अपने रंग में बदला करो। सांझ-सबारे =सुबह शाम का। ऑनल में बुरा । खम =गुप्त, भीतरी । मन क श्रत (३) सन ने रास सों के लाख । त्यागि के परपंच माया, सकल जग को चाब ठेक।। सांघ की तू चल गहिलेझूठ कपट बहाद। रहनिसों लवलोम व गुरू ज्ञान ध्यान जगाद 1१। जग की यह सहज जुक्ति, चिचारि के ठहराव । प्रेम प्रति सों लागि के, घट सहज ही सुख पाव . दृष्टिह प्रावृष्टि देखोसुरति निवि बसाव । आतमा निर्धार निभ बानि, अनुभब गाव ५३ा। अचल अस्थिर ब्रह्मा सेवो, भाव चित अरुझाव। भीखा फरि न कबहूं पंह, बहुरि ऐसो दाध ।४।