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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०३

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४० सत-फाशय आवृष्टि =अबूट, अद्य । निर्धार. . . हानि =निराधार एवं अ- न्मा रूप है । अस्थिर=स्थिरअचल । अरुझाव =मग्न करो। माया जाल (४) मोहि काहलु है मन माया टेक ॥ ए सबब हम फिरि ए, फिर एक जग छाया । आातम जीव करम अहाना, जड़ चेतन बिलमाथा 1१। परमारथ को पीछ दिया है, स्वारथ सनसुख पाया। नाम नित्य तजि अनितें सादे, तजि अमृत बिछ खाया १२। सतगुरु कृपा कोऊ कोडेड चै, जो सो6 निज काया । भीखा यह जग रतो कनक पर, कामिनि हाथ बिकाया ।३। डाहलु है = दुःख देती है । अनित अनिश्य हो । (५) बुनि बजत गगन भंह बोना, ऊँह आयु रास रस भोना की। भेरी ढोल संख सहनाई, तल मृदंग नवोना। सुर जगह बहुत मज सहज उवि, परत है ताल प्रबीना 1१ । बाजत अनहद नाइ गहागह, धुकि बुधुकि सुरझीना। अंगुली फिरत तार सातm परलय निकसत भित भीना ॥२। पाँध पचीस बजाजल गावत, नितें चार छबि बीना । उघ रत तननन घित , कोड ताइ थेइ तत्त कीना 1३ है। बाजत जल तरंग जूहु मानो, जंत्री जंन कर लोना। सुना सुनत जिव थकित भयो, मानो है गयो सब्द अधोना ।४। गावत मधुर चढ़ाय उतारत, रुनझुन रुनझुन धीना । कटि किकिनि पग नूपुर को अवि, सुरति निरति लौलोमा ५। आदि सध्द औोंकार उठतु है, अबुष्ट रहत सब दौसा । लागी लगन निरंतर प्रभु सों, भीखा जल मन मोना ६।