पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०४

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मध्ययुग (उत्तराखें) ४४१ भिनभना =भीनी-भीनी जा भिन्नभिन्न । निर्त =मृश्य । उधरत = निकलता है । धोना =त धिनसचिन ' सब वीना सब दिन, निरंतर । धना फल (६) बोलता साहब लोलो , मिथ्या जगत सत्य इक वोई १। नाम खेत जनप्रति किया ,बज सा पैर पसारी । सेवा सन उतमुनी लगायालो लो जा जामल गुरू दाय १२। जोग बढ़नि जल विधे बबाईचिरही अंग जरद होझ आई । गगन गवन मन पवन झुराईलोलो रंग परम सुखदाई ३१। सुरति मिति के मेला होई, नाद औ बिद एकसम सोई। बजल अनहद नूर अचाई, लोलो सुनत बहुत सुखपाई ।४ अनुभव बालि उदित उजिया, आदि अंत मधि एक निहारा है। सुद्ध सरूप अलल लख पाई, लोलो दरसन को बलि जाई ।" पापपुनगर की निनारा, केवल अतम रम अधारा । भीखा के 'ह कारन जग आयेलोलो जन्म सुफल करिपये 1६। बोई ==बही। ता पैर पसारी =उसमें बिखेर दिये । जामलि उग गई । बालि फल । गत रहित । अम (७) सब भूला कि हसहि भुलानेसो न भुला जाके अतम ध्याने १। सब घट ब्रह्मा बोलता शाही, दुनिया नाम कहीं मैं काही । दुनिया लोक बेद मति थाय, हरे गुरु गरम अजपा जाये ।२॥ हरिजन के हरिरूप समा बै, घमासान भये सूर कहावे । कह भीखा क्यों सही नाहीं, जब लगि सांच भूछ तनसाहीं 1३!। घमासान =संघर्ष से नहीं नाहीं =ति नेति । अजन (८) मनुघां नाम अजत सुछ लोयाटक।। जनम जनम से उड़ानि पुरझनि, समुअत करकत हीया ।