पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०६

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संध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४६३ निरगुन में गुम क्योंकर कहियल, व्यापकता समुदाय । जहें नाह तहें सब कथू दिकि प्रतअधरन की कठिनाथ १४)। आजपा जाच अकथ को कैंथनओं, अलख लखन किम पाय । भीखा अधिगति की गति न्यारीसन बुधि चित में समाय १५। बिहन =मोल लेने । संथ . . . नार्वे =व्यादि से काम नहीं गलता1 अनन्य =केबल वही एक सत्र । सरवनः :श्रवण, कान है समुदाय रसई । निश्चल मन (११) धनि कबहूं यह सूनब सपनेकी सन थाकि बैंहि घर अपने " अब विषयनि के निकट न अइहों, सिरमै रमनाम ले लइहों ।२)। वाको मोहि बिसबास न ऐसो, हाथी हाथ में होवे कंसो ।।३।। संन उक्ष मे न चेत अब आ , तब सुधि मह बुद्धि लि जाये थे। जब गुरु गोबिंद कई सहाई, तब कबही के सो हराई ।।५है। अब मैं आनंद करब हुलासा, केवल ब्रह्म सिलो देढ़ि पाता ।है६। फिर मन के धरम अधरम जम, का कह कड़े को माने १७। नद लो पानि पवन कर लेखा, बहन सदा कहीं थीर न देखा 1८। यह भीखा गुरु सेवक सोई, जाकर मन हरि भजता होई net था कि =थककर । हाथ में =वश में । उनमेख =उम्मेद, विकासप्रति कवही के किसी प्रकार ने फिर, . . . जाने

फिर भी उसी के ऊपर है । पनि =पानी, जल प्रवाह ।

सच्ची भक्ति (१२) प्रीतिसों हरि भजन है सांची टेका। यहि बि भकिल भाव फल देखा, रूप थ ही अंतर गति कांची 1१ । जोग जयं तीरथ ब्रत पूजा, मन सोया आशा लिये नांची ।२३३