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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५०९

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४९६ संलकाव्य भूकुंड में सांच इक बेलता ब्रह्म है। ताहि को भेद सतसंग पावै । क्षम्य सो भाग जो सरन सेवामहल रात दिन प्रति लवलीन गावै । बचन से जुक्तिों सिद्धि असम करें, पबन संग गबन करि गगन जाने से प्रगष्ठ परभाव गुरुश्य परचर इहै, भीखा अनहां पहिले सुनाई ।२॥ सडेंद परकास के सुनत अरु देखते छुटि गई विधे बुधि चत कांची । सुरत में निरति घर रूप अयो दृष्टि पर प्रेम को रेख परस्तोत बची । अतना राम भरिपूर परगट रह्यो, खुस्लिाई मेंथि निज नस बांची । भीखा यों पशिगयों जीब सोई ब्रह्म में, सीब मरु सक्ति को मिलन सांची १३। ब्रह्म भरि पूचहुंओर दसदिसा व अज्ञासवत मा गहना । ‘अजर सो अमर आबरन अबिगति सदा छातमा रभ निज रूप लहना है। सल सों एक अवलंब करु झापनो, तजो बकवाद बहु फुह कहना। भीखा अलेख क देख के मिलि रह्यो, सुष्टि का बांधि चुप लांडे रहना 1४है १-ज़िल=निपुणनिणन 4. तुषार -=विस्तार ।