पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१०

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संध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४७७ ३-—बास -=बस्न् : अयो=आयोअर्थशा में गंथि -बंधन की गांठ के एगि गयो =हिलमिल गया है सांत्रो = वास्तविक बात है । ४--वरल -, बिना किसी रंग का । फुहस-भद्दी, बेसिर पैर की । पुष्टि कर, . . . रहना =अंत में मुट्ठो बांधकर मन बन जाना है। कुंडलिया राम रू५क् को जो लल जन ५रम प्रबोन है। सो उन पर गोन लोक अह बेद बखायें । सल संत्ति में भाव भति ५रमानंद जमैं । सकल विषय को दयाशि बहुरि परबेस न पाये । केबल आपे अर्घ प्रार्ध में प्रयु छिपाई है। भीखा सबते छोट होइ रहे चरन लवलीन । राम रूप को जो लखे सो जन प५रम बैोन 1१। मन अम बचन बिचाई राम भजै सो धन्य है। राम भजै सो धन्य धन्य वयु मंगल कां राम चरन अनुराग परम पद को अधिकारी है। काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरि न अवै । परमातम चेतन्य रूप सह दू ष्टि समावें । ठंापक पूरन वह है भीखा रहमि अनन्य । अन कम बचम विचार कर्क राम सो अन्य १२। धनि सरे भाग जो हरि भजे तालम तुलै न फोइ ॥ तासम तुले न कोई होइ निज हरिको दासा । रहै चरल लौलीन राम को सेवक खासा। सेवक सेवफाई सह भाव भगति परवान ने सेवा को फल जोश है भक्तबस्य गबान । केवल पून ब्रह्म है भीख एक न दोहूं । धन्य सो भाग जो हरि भ6 तासम तुलै न कोझ १३॥ ३२