पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१४

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संययुग (उत्तराई) ५० १ पांच मरि सन बसि करि पने तीनों ताप ससाय । सत सन्तोष गही दूढ़ सेती, दुआन मारि भजागे ।२॥ सील छिमा धोर , अनहद बंब बजावी । पाप बानिया रहन न दाऊँधरम बजार लंगबो 1३।। सुबस बहस होवें जब नगरी, री रहै न कोई । बरन वास गृ ए अमल बतायt, सहजो सँभलो सोई ॥४१। बंब = . भारत । संभेलो -व्यवहार किया । सगुण रूप में (२) मुकट लट अटको सन सiहीं । तृत तन नटवर मदन मनोहर, कुंडल झलक अलक विधुराई ॥१। " नाक बुलाक हलत मुक्तहलहोटे सटक गति औओंह चलाई । झुमुक मुक पग धरत धरनि परबांह उठाय करत चतुराई ।।२। दुमक झनक पुर झनकारततता थेई थेई हरी रिझाई । चरन दास सहजो हिय अन्तर, भवन क को जित रह सदाई ।३। बिथुराई --छिटकी हुई ' नृत तमनृत्य करता हुआ शरीर । चतुराई =भाव चातुर्य । विनय (३) तुम सबंत में शगुन भारी । तुम्हरी औोट खोट बहु कहेंपतित उधारन लाल बिहारी 1१। खान पान बोलस अरुह डोलत, पाप करत है देह हमारी । कई विचाई त' मह छूट, जो छूटीं तो क्या तुम्ह!री 1२॥ में अधीन मायावस हो करि, तुव सुधीन माया न्यारे । मैं अनाथ प्रेम नाथ गुसाईसब जीवन के प्रान पियारे ५३है। भ सागर में डर लगत मोति, तारो बेसहि पार उतारी । चरन दास गुर किरपा सेह, सहजो पई सरम तिहारी 11४।