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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१५

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५०२ संतकाय ऑन -अवगुणपूर्ण । तुम्ही नोट -=तुम से छिपकर । सुबोन==स्वाधीन । चौपाई राम तर्कों पे गुरु न विसारू। गुरु के. स्म हरिहूं न निहा है॥ हरि ने जन्म दियो जग सांही । गुरु ने आवागमन बूटाहों । हरिने पांच चोर दिये सतथा । गरु ने लई छrय अनाथार । हरिने छुडूब जाल में गरी । गुरु में काटी ममता बेरी । हरिले रोग भोग उराय । गुरु जोगी कर सबै छटायो ॥ हरिने क५ अर्म भराय। गुरु ने आतम रूप लखायी है हरिने मोनू आप छिपाय । शुरु दीपक दे ताहि दिखाय ॥ फिर हरि बंध मुक्ति गति लाये । गुरु ने सबही भमां मिटायें । ३ चरनदास पर तन मन वाहूं। गुरु न तथू हरि तजि डाह है॥ निहारू =मानती हूं। से =डाल दिया। जोगी और =यक्ति करके । साखा सहजो स रु रंगरेज सई, सुबही क रेंग देत । जैसा तैसा वसन लैं, जो कोइ प्रावं सेत ११। साथ मिले हरिहो मिले, मेरे मन परतीति । सहजो सूरज , जल पाले की रीति ।।)। जो सो तो सुन्न , जो जागे हरि नाम । जो बोले तौ हरि कथा, भक्ति कर निकाम 1३है। जब लंश चावल धान , तब लग उपज प्रांय ! गज छिलके तजि निकसमुखित रूप सँ जाय ४। जग देवत तुम जावा, तुम देखत जग जाय । सहजो योंही रीति है, मत कर सोच उपाय ५॥