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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१६

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मध्ययुग (उतद्वं . G s .

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। साइन तक भ्रय घन, सही निर्भ य रंक के कुश के पंण ने डिया, ची fि निसं 11६। हंसा सह सर , सुरत मझरिया पोय । उत्तर उतर फिरिफिरि चढ़, सहजो सुमिरन हडेय १५७! सेल -शुद्ध हृदय के साथ 1 जग छिलके सांसारिक प्रपंच । स्साहन । धनवानों को । मैकाया =चक्की में लगी हुई सकरी नाम की लकड़ी t थीय ==थ दो ? संत दयाबाई दयावाई का एक अन्य नाम दया कुंवर भी मिलता है । इनके प्रंथ ‘दयाबोध’ से पता चलता है कि ये संत चणदास की शिष्या थीं और उसकी रचना इन्होंने सं० १८१८ की चैत मुदि ७ को की थी । प्रसिद्ध है कि अपनी गुरु बहन सहजो वाई की भांति ये भी दूसर (वैश्य) कुल की ही कन्या थीं और अपने गुरु के साथ दिल्ली में रहा करती थीं। इनकी रचना दया बोध’ के साथ विनय मलिका' नाम की एक अन्य छोटो मी पुस्तक भी ' जे लवडियर प्रेसद्वारा प्रकाशित हुई है जिसके रचयिता का नाम दयादास जान पड़ता है । दोनों के संपादक ने दयावाई और दयावास को अभिन्न माना है जो असंभव नहीं जान पड़ता । इनके विषय में और कुछ विदित नहीं है । इनकी रचनाओं में शुरू भवित के अतिरिक्त प्रेम, अजपा जाप आदि विषयों का वन अन्य संतों की ही भांति दीख पड़ता है । विनय मालिका’ के अंतर्गत प्रदर्शित की गई एकांत निष्ठा का भाव तथा इनके आत्मनिवेदन का न्यपन इनके सच्चे हृदय के परिचायक हैं । इनके आत्मसमर्पण में, एक निराश्रित की शक्तिनता के साथसाथ अपने इष्ट के प्रति दृढ़ विश्वास का सहारा भी लक्षित होता है । विनम्न मालिकाकी भाषा में दिया बोधसे कहीं अधिक प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति है।