पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५०४ संतकाव्य साखी गुरु किरपा बिन होत नहभश्व भक्ति विस्तार है। जोग ज जप तप ‘दथा, केवल ब्रह विचार 1१५है। सूरा सन्मुख समय में, घायल होत निसं । यों साधू संसार में, जगके सह कलंक ५२३। ‘दयt' प्रेम उमस है, तनकी तनि सुधि नाह । झुके रहें हरिरस यूके, थके नेम बत माह 1३। हंसि गायत्त रोवत उठतगिरि गिरि परत अधीर । पें हरि रस चस्को दया, सहै कठिस तन पर 1४ स्बांसड स्वस विचार करि, रखेंसूरति लगाय । दया ध्यान त्रिकुटी थ रे, परमातम दरसाथ 1५। वही एक व्यापक सकल उयों मनिका में डोर ॥ थिरचर कीट पतंग में, ‘दया न चूजो और ६।' (वयबोध से) समय =संग्राम । तनि तनिक भी। झुके रहें-सद और भी हरिरस पीने के इच्छुक बने रहते हैं । । थके . . . माहि -= विधि निषेधादि से सदा उदासीन रहा करते हैं । चसको -s चसका, स्वाद के मनिका मनकों की महिला । पैरत थाको हे प्रभु, सूझत बार म पार। मेहर मौज जब ही करोतब पाऊं दरबार ७है। निकपच्छी के पच्छ तुम, निराधार के धार । मेरे तुमही नाथ इक, जीवन प्रान प्रधार । ।८५ ठग पापी कपटी कुटिलये लच्छन मोहि मांहि । जैसो हंसो तेरहो, अरु काहू को तरह le। । दुख तज सुख की चाह नहनfह बैकुंठ बेवान । चरन कमल चित चहल हाँ, मोहि तुम्हारी शाम १० ।