प्रेमगाथा के कवियों तथा गोस्वामी तुलसीदास आदि ने भी इसे
अपनाया है। संतों ने इसका प्रयोग या तो सृष्टि रचना संबंधी वर्णनों
में किया है अथवा आगे चलकर अपनी पौराणिक रचनाओं एवं प्रेम-
गाथाओं में दिखाया है। इस प्रकार के प्रयत्न अधिकतर विक्रम की
१७ वीं शताब्दी के अनंतर ही दीख पड़ते हैं।
ऐसे दोहों-चौपाइयों का उपर्युक्त प्रयोग कबीर साहब को एक अन्य रचना में भी पाया जाता है जो 'ग्रंथ वावनी' के नाम से प्रसिद्ध है और जिसका एक यत्किंचित् परिवर्तित रूप सिखों की मान्य पुस्तक 'आदिग्रंथ' में भी मिलता है। 'आदिग्रंथ' में इसका नाम 'बावन अषरी' दिया गया है, जिससे प्रतीत होता है, कि इसकी प्रमुख द्विपदियों का आरंभ बावन अक्षरों अर्थात् नागरी लिपि के क्रमशः अकारादि सोलह स्वरों तथा ककारादि छत्तीस व्यंजनों से होना चाहिये। प्रत्येक अक्षर से अक्षरानुक्रम लिखने की यह प्रणाली भी कम पुरानी नहीं है और इसका भी प्रांरभ अपभ्रंश काल से ही बतलाया जाता है। 'इसके प्रमुख छंद दोहे चौपाई ही हैं, किंतु कई रचनाओं में कवित्त, छप्पय, सवैये व कुंडलियाँ छंद भी पाये जाते हैं। 'ग्रंथ बावनी' के प्रधान अंश का आरंभ ऊँकार से होता है और उसके आगे स्वरों को न देकर ककारादि व्यंजनों के ही प्रयोग कर दिये जाते हैं जिस कारण इसका 'बावनी' नाम सार्थक नहीं प्रतीत होता। इस रचना में 'ड.' एवं 'ञ' के स्थानों पर केवल 'न' का प्रयोग हुआ है और ‘य’ का ‘ज’ तथा 'श' का 'स' भी कर दिया हुआ दीख पड़ता है। स्वरों की भाँति, 'क्ष', 'त्र' एवं 'ज्ञ' का भी अभाव है और ‘स’ एवं ‘ष’ का प्रयोग अंत की पंक्तियों में दुबारा कर दिया गया है । इस प्रकार यदि ‘ड.’ तथा ‘ञ’ के स्थान पर ‘न' को, ‘य' के स्थान पर ‘ज' को 'मधुकर' (जून,जुलाई, १६४६), पृष्ठ ४६५।