पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मठप्रभुग (उत्तरार्द्ध) ५ ७७ बास को या प्ररदास सु, पिया अरसन दोर्जे दो। राम वरण बिरहिनि कहै, अब बिल म कोर्ज हो ४१। जर शात्रों, भ्रमण है श्रेरदा ===प्राथना, बिनती । आरती (२) आरतो रमता रम तुम्हारीतुम ने लागो प्रति हमारी टे क।। स्मता राम सकल भरपूर सुषिम यू ल तुम्हारा नूरा ११। भारत सुसरण सेवा को8सब निर्दोष ज्ञान गहि लो क२ा। ये ही नारनो यही पूजा, राम बिना दरसे नह टूजा 1३। शिब्द सनकादिक शेष पुका है, यह आरति भव सागर तारें ।।४। रात चरण ऐति नारलि ताके, छठसिंधि नव निधि वेरी जा !।५। कुंडलिया निस्प्रेही, मिर्धा रता, निराकार, निरधार । "सकल सृष्टि में रभि रह, ताको सुमिरन सार ॥ ताको सुमिरन सार, राम सो ताहि भणीजे । 'दृष्टि मुष्टि प्राकार रूप माया गिणीजें । राम चरण व्यापक व्योम ज्यों, ताको सुमिरन सार निस्ही, निर्वीरता, निराकार, निरघार ११। जिशाहू जरयां लियां, संजय रा: मम्न । धर्म मांह धारा सदा, तनको नांहि जतन्न । समको नहि जरान्न, आश्न जल संजम लेई । राम भजन में निरत, निय निर्मल जल सेवे ॥ राम चरण में धारणा, कहा ही कहा थश्न । जिशाम जरयां लियां, संजम रखे मन ।२। इतना चहिये साधु कों, छाबम भोजन नीर । राम चरण एता अधिक, ले सो नहीं फकोर 1 के