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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५२२

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मप्रयुग (उस रा) ५० 8 जायो प्रेम नेम रहो नहीं । पाई राम धाम घट सांही है उर अस्थान पाय विश्रामा ' सब्द किया जाय नाभि मुकाम क११ ‘नाभि क मल में सध्द गुजारे ' नोसे नहरी संगल उचाएं है । रोस रोगेम खणकार एवं । जैसे जंतर सांत पक् १२। माया अच्छा इह विलाय। ररंकार इक गगन सिधाया । यठित हिंसा मेरु को घी से बसों गांठ बोरवे फाटो ११३॥ व्रिटो संगम क्रिया स्नान में जाध चलt चौथे अस्थाना है। जहां निरंजन तख्त विराजे ज्योति प्रकास आतन रवि रागे ।४है। अणहब नाद गिल नहि आाने । भांति भांति की रग उपदें है। सूद सुघुसना नीर झुहार । सून्य सिखर का यह बिवहारा 1५। जंतर तांत =किसी वाद्ययंत्र में लगा चमड़े की तांत । उपाद =उपन्न करता है ? आरछ बिरह घटा बारात ने ण भीझर झगे । चित चमं जो कि हिदो श्रोहए । बिरहन हाल दया कर हालियो । परिहां, राम चरण राम बेग सम्हलके है।१॥ बिरहण कर ले करछे कले जाक काटिहै । पीव न सुण पुकार कि हिरा फाटिहै । सरी बटाल लग न पूछे प्रीडरे । परिहां, राम चरण बिल रम करे युण भोडरे ।२ा।