पृष्ठ:संत काव्य.pdf/५२३

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११० संत-काध्य विरह सपोड़ा सरस बहै उर शरद थे । अश 'यो है फादि बयो अति दरब रे ? । निस दिंन करे पुरूषर वैध हरि अवहो। परिहां, राम ज रण जिन राम भरे नह पाब ही है. सूई कर निक सार सूर हित कीजिये । अपनी हां आप घब सी लीजिये है। प्रब नहि कोॐ ढोल घब प्रति बिस्तरे । परिहां, राम चरण बेहाल बिरहनी दुखभरे । गुां असाया निकट दूर कैसे संया । सोहा नयर को बाड ग्रास होय रहा हैहै में निर्बल निरआर में ट% वाडु जी । परिहां, सुभ समर्थ बल जोर कही पड़द फर्ष की घरराप्त ==हराती है । बोल=बिजली ।